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साइबर व्योम में पहचान की चोरी। Identity Theft in cyber space

साइबर व्योम में पहचान की चोरी
साइबर व्योम में पहचान की चोरी

साइबर व्योम में पहचान की चोरी

पहचान की चोरी- साइबर व्योम में पहचान की चोरी से आशय उस सूचना को चुरा लेने से है, जिससे साइवर लोक में किसी व्यक्ति (या उपकरण) की पहचान निर्मित होती है। जो कुछ भी आपका अद्वितीय है और जो कुछ भी अपवर्जी रूप से आपका है, इन्हीं दोनों से मिलकर साइबर लोक में आपकी पहचान बनती है।

चूंकि साइबर लोक में कोई भी चीज़ आँकड़ा मात्र होता है, आपकी पहचान भी संगत आँकड़ों के ऐसे अनेक समुच्चयों से होती है जो एक या दूसरे रूप में आपको परिभाषित करते हैं। अस्तु, यदि कोई व्यक्ति आँकड़ों के उक्त समुच्चयों, जो आपकी पहचान से अपवर्जी रूप से सम्बद्ध हैं, या उनके किसी अंश तक अनधिकृत रूप से पहुँचने का प्रयत्न करता है या पहुँच जाता है, तो ऐसे व्यक्ति द्वारा कारित अपराध को ‘पहचान की चोरी’ की संज्ञा दी जायेगी

“चारों तरफ फैली हुई निजी सूचनाओं के मध्य, यह कोई हैरत की बात नहीं कि पहचान के चोरों को अपने चौरकर्म में बहुत आसानी हो जाती है। विगत में पहचान की चोरी के अन्तर्गत किसी का बटुआ चुरा लेना, डाक ले लेना, या रद्दी में घुसकर किसी की महत्त्वपूर्ण निजी सूचनाएँ लेना, आदि शामिल रहते थे।

अब आपकी व्यक्तिगत सूचनाएँ अक्सर हवा में अंकीय रूप में तैर रही हैं, जैसे किसी अवसरवादी द्वारा दबोच लिये जाने के इन्तजार में हों।…………कम्पनियाँ बरसों से अपने ग्राहकों से सम्बन्धित सूचनाओं के आँकड़ा आधार (data base) निर्मित कर रही हैं, उसका इस्तेमाल कर रही हैं, और उसे साझा करती आ रही हैं। आँकड़ा खनन (data mining) तकनीकों की मदद से ये कम्पनियों इन आँकड़ा आधारों को मूल्यवान आस्तियों के रूप में परिवर्तित कर लेती हैं, और, दुर्भाग्यवश, इन आँकड़ा आधारों की प्रतिभूति (Security) अक्सर अति निम्नस्तरीय या सर्वथा उपेक्षित रहती है। सच तो यह है कि हमने ‘पहचान की चोरी’ नामक एक दानव पैदा करके उसे पिंजरे से बाहर निकाल दिया है।

संगणकों और अन्दरजाल (Computer and Internet) ने हमारा जीवन सुखमय बनाया है; लेकिन इन्हीं के चलते पहचान की चोरी भी पैदा हुई है।”

पहचान की चोरी हेतु दण्ड (punishment for identity theft) (अनुभाग 66ग )– कुछ ऐसा करते वक्त, जिसे हम जानते हैं कि गैर कानूनी है मगर जिसका फल हम नहीं भुगतना चाहते, हम अक्सर दूसरों के इलेक्ट्रानित डाक खाते (e-mail account), या प्रवेश शब्द (password), आय इलेक्ट्रानित हस्ताक्षर का इस्तेमाल करते हैं।

यही कारण है कि साइबर व्योम में पहचान की चोरी हेतु दण्ड का प्रावधान साइबर अश्लीलता या बाल अश्लीलता के कृत्यों में लिप्त साइबर अपराधियों को दण्डित करने हेतु भी प्रासंगिक हो जाता है।

अस्तु, अधिनियम में प्रावधान है कि धोखे से या बेईमानी से दूसरों के इलेक्ट्रानित हस्ताक्षर, प्रवेश – शब्द या अन्य किसी अद्वितीय पहचान विशेषता (feature) का इस्तेमाल करने वाले को अधिकतम तीन वर्ष के सश्रम या सामान्य कारावास और महत्तम एक लाख रुपये के जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है।

साइबर शिकार और पहचान की चोरी and identity theft) (Cyber stalking साइबर ब्योम (Cyber Space) में छिपकर पीछा करने वाले अक्सर दूसरे की पहचान का सहारा लेते हैं। ये किसी दूसरे व्यक्ति के नाम से इलेक्ट्रानित डाक (ई-मेल) खाता सृजित कर लेते हैं जिससे इनका असली चेहरा किसी के सामने न आ सके।

इस तरह ऐसे लोग पहचान की चोरी का कृत्य करते हैं जो अपने आप में एक साइबर अपराध है और इसके जरिये, एक अन्य है अपराध भी कारित करते हैं जो साइबर शिकार (cyber stalking) के रूप में जाना जाता है। इसकी एक मिसाल डॉ. अविनाश अग्निहोत्री बनाम प्रमाणन प्राधिकारियों का नियन्त्रक एवं अन्य, के बाद में मिलती है।

प्रस्तुत अपील में अपीलकर्ता ने इस आशय के निर्देश हेतु प्रार्थना की थी कि प्रत्यर्थी संख्या 1, प्रमाणन प्राधिकारियों का नियंत्रक सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के कथित रूप से विभिन्न उल्लंघनों की जाँच करें, और यह कि प्रत्यर्थी संख्या 2 और 3 उक्त कथित उल्लघनों, जैसा कि 23.09.2009 दिनांकित शिकायती पत्र में उल्लिखित थे, की जाँच में प्रत्यर्थी संख्या की मदद करें।

अपीलकर्ता के बारे में कहा गया कि वह इलेक्ट्रानिकी आयोग के योजना समूह का सदस्य था और इस हैसियत से उसने भारतीय इलेक्ट्रानिकी उद्योग की योजना में महत्त्वपूर्ण योगदान किया था, और वर्तमान में वह मैस्कान ग्लोबल लिमिटेड (एम जी एल) के वरिष्ठ उपाध्यक्ष रूप में कार्यरत था।

अपीलकर्ता ने अपने नियोक्ता के माध्यम से अनेक अपमानकारक ई-मेल के प्राप्त किये थे जिन्हें प्रत्यक्षतः अविनाश डॉट अग्निहोत्री ऐट जी मेल डॉट कॉम नामक ई-मेल पहचान खाते से भेजा गया था, जिसके बारे में उसका मानना था कि ये कुछ ऐसे व्यक्तियों द्वारा धोखे से सृजित ई-मेल खाता था जिसका उद्देश्य अपीलकर्ता की छवि धूमिल करना, और, एम जी एल तथा इसके अध्यक्ष-सह-मुख्य अधिशासी को बदनाम करना था। उक्त फर्जी ई-मेल पहचान खाते से कम्पनी के कई साझेदारों (stake holders) को पत्र भेजे गये थे।

उक्त फर्जी ई-मेल पहचान खाते से 1 दिसम्बर, 2008 को 9:00 बजे एक ई-मेल क्रिश्चियन हैन्समेयर नामक व्यक्ति को “एम जी एल गहरे संकट में है बचाने के लिए तत्काल कार्रवाई जरूरी है” नामक शीर्षक से भेजा गया। उक्त ई-मेल के कुछ अंश निम्नवत् बताये गये |

“जिस समय हम सब कर रहे हैं, एम जी एल हर रोज टूट रहा है। भला हो उस ठग और धूर्त का जिसका नाम सैण्डी चन्द्रा है, जो न तो नेता है न ही पेशेवर व्यक्ति वह सिर्फ जितनी तेजी से हो सके कम्पनी को लूटना चाहता है, और कम्पनी को उसके निवेशकों, कर्मचारियों और ग्राहकों के साथ डुबो देगा।

वह एक आततायी और निरंकुश व्यक्ति बन गया है, और वह किसी की बात नहीं सुनना चाहता। हमें एकमात्र उम्मीद आपसे है क्योंकि आप एक बड़े अंशधारक हैं और शायद आपका कुछ अधिकार भी बनता है। यदि आप अन्य अंशधारकों को साथ ले लें तो आप कम्पनी के लिए एक खुला प्रस्ताव रख सकते हैं। यदि हमारी किसी मदद की जरूरत हो तो हमें कृपा करके अवश्य बताइए।”

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प्रत्यर्थी संख्या 1 ने अपील को प्रारम्भतः शून्य करार दिया, क्योंकि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के अनुभाग 57 के तहत सिर्फ नियंत्रक के आदेश के विरुद्ध ही अपील की जा सकती है; और चूँकि प्रस्तुत मामले में नियंत्रक द्वारा कोई आदेश पारित नहीं किया गया है, अतः कोई अपील दायर नहीं की जा सकती।

उसने ध्यान दिलाया कि उसको (अर्थात् नियंत्रक को) शिकायत की जाँच करने और उस पर आदेश पारित करने हेतु युक्तियुक्त समय तक प्रतीक्षा करने के बजाय अपीलार्थी ने प्रस्तुत अपील दायर कर दी।

प्रत्यर्थी संख्या 2 और 3 ने कहा कि जी मेल डॉट कॉम को गलत तरीके से पक्षकार बनाया गया है, क्योंकि यह गूगल इनकारपोरेटेड द्वारा प्रस्तुत की गयी एक सेवा है जो स्वयं में कोई विधिक इकाई नहीं है, और यह कि ऐसा आवेदन, जिसमें प्रत्यर्थी संख्या 1 को अधिनियम के कथित उल्लंघनों की जाँच करने और प्रत्यर्थी संख्या 2 एवं 3 को उक्त जाँच में प्रत्यर्थी संख्या 1 की मदद करने का निर्देश देने हेतु याचना की गयी थी, अधिकरण के सम्मुख प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था।

प्रत्यर्थियों ने यह भी कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के अनुभाग 57 के अनुसार अधिकरण में नियंत्रक या निर्णयकर्ता अधिकारी (Adjudicating Officer) के आदेशों के विरुद्ध अपीलें सुनने का क्षेत्राधिकार निहित है; जिसे ऐसे किसी आवेदन या प्रार्थनापत्र की सुनवाई का आधार नहीं बनाया जा सकता जो वस्तुतः नियंत्रक या निर्णयकर्ता अधिकारी के आदेशों के विरुद्ध दायर की गयी अपील की प्रकृति का नहीं है।

अधिकरण ने तीन मुद्दे बनाये, यथा (i) क्या अधिनियम के तहत नियुक्त प्रमाणन प्राधिकारियों के नियंत्रक अथवा निर्णयकर्ता अधिकारी के सम्मुख आवेदन करने के वैकल्पिक उपचार का उपयोग किये बगैर अधिकरण के सम्मुख की गयी प्रस्तुत अपील अनुरक्षणीय है; (ii) के क्या प्रस्तुत अपराध सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत आता है: क्या कोई, और यदि हाँ तो कौन सा, उपचार, इस स्तर पर प्रदान किया जा सकता है?

(iii) सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के अनुभाग 17 (नियंत्रक एवं अन्य अधिकारियों की नियुक्ति), अनुभाग 18 (नियंत्रक के कार्य), अनुभाग 30 (प्रमाणन प्राधिकारी द्वारा अनुपालनीय कुछ निश्चित प्रक्रियाएँ), अनुभाग 46 (निर्णय करने की शक्ति), और अनुभाग 48 (साइबर अपील अधिकरण के समक्ष अपील) पर विचारोपरान्त अधिकरण ने पाया कि इसके समक्ष सिर्फ नियंत्रक या निर्णयकर्ता अधिकारी के निर्णयों के विरुद्ध दायर की जाने वाली अपील ही पोषणीय है।

अधिकरण ने अपीलकर्ता का यह तर्क स्वीकार नहीं किया कि अधिकरण दीवानी अदालत के रूप में अपनी अन्तर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए प्रस्तुत अपील को स्वीकार कर सकता है; क्योंकि उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों से इस मत की पुष्टि नहीं होती है।

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